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प्रेमचंद का साहित्य मुक्ति के लिए संघर्षरत जनता की समरगाथा है : प्रो. सुरेंद्र सुमन

मिश्री लाल मधुकर, दरभंगा। शोषितों–वंचितों के अमर कथाशिल्पी प्रेमचंद की जयंती की पूर्वसंध्या पर जन संस्कृति मंच तथा आइसा के संयुक्त तत्वावधान में जनकवि सुरेंद्र प्रसाद स्मृति सभागार में ‘ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बरक्स प्रेमचंद की सांस्कृतिक विरासत’ विषयक संगोष्ठी हुई। कार्यक्रम की अध्यक्षता जसम जिलाध्यक्ष डॉ. रामबाबू आर्य ने तथा संचालन जिला सचिव समीर ने किया।



इस अवसर पर जसम राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य प्रो. सुरेंद्र सुमन ने कहा कि इस समाज को बदलने के लिए प्रेमचंद की आवश्यकता हमेशा बनी रहेगी। वैश्विक क्षितिज पर मनुष्यता की मुक्ति के तीन महान कथाकारों का उदय होता है, रूस में गोर्की, चीन में लू शून तथा भारत में प्रेमचंद। तीनों ने अपने समय और जगह में मनुष्यता के शत्रुओं को तलाशा और उनसे संघर्ष किया। प्रेमचंद ने भारत में मनुष्यता के सबसे बड़े शत्रु के रूप में ब्राह्मणवाद को चिन्हित किया था। उन्हें केवल 56 वर्ष की आयु मिली थी, इसी दरम्यान उन्होंने विपुल लेखन किया था। सैकड़ों कहानियां, दर्जनों उपन्यास तथा हजारों पृष्ठ में फैला उनका संपादकीय सामाजिक परिवर्तन के लिए था। प्रेमचंद ने अपने समय में जिन सामाजिक विद्रूपताओं को रेखांकित किया था वे आज विकराल रूप ले चुकी हैं। किसानों की जिस त्रासदी को उन्होंने चित्रित किया था, वह आज वीभत्स रूप ग्रहण कर चुकी है। ठीक इसी समय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की खाल ओढ़े हिटलर और मुसोलिनी से प्रेरणा ग्रहण करने वाले सत्ताधीश कॉरपोरेट के साथ मिलकर मौज कर रहे हैं। ऐसे भीषण समय में प्रेमचंद का साहित्य जनता के संघर्ष के लिए ऊर्जा का अक्षय स्रोत है। प्रेमचंद ने साहित्य में जिस हाशिए के वर्ग को नायकत्व प्रदान किया, जिनके प्रति उनकी प्रतिबद्धता रही, उस आम अवाम को फासिस्ट सत्ता के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करना प्रेमचंद के सपनों का भारत बनाने के लिए बहुत जरूरी है। यहां से आगे का मार्ग संघर्ष और परिवर्तन है। यह हमें तय करना होगा।

मौके पर जसम जिलाध्यक्ष डॉ. रामबाबू आर्य ने कहा कि सद्गति, ठाकुर का कुंआ, सवा सेर गेहूं जैसी कहानियां तथा रंगभूमि जैसे उपन्यास ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तीखी आलोचना है। एक समय तो उन्हें ब्राह्मण विरोधी कहा जाने लगा था। प्रेमचंद का साहित्य और संघर्ष ब्राह्मणवादी संस्कृति के बरक्स जनवादी संस्कृति और समतामूलक समाज बनाने के लिए क्रांतिकारी विरासत है। वे यदि बनारसी दास चतुर्वेदी के बुलावे पर तुलसीदास जयंती समारोह में जाने से इंकार करते हैं तो इसका सामाजिक–सांस्कृतिक निहितार्थ है। उन्होंने ब्राह्मणवादी संस्कृति से अपनी असहमति कई अवसरों पर जाहिर की थी, यह वैसा ही एक अवसर था।

आज जब समाज को पुनरूत्थानवादी शक्तियां पुनः दकियानूस बनाने में लगीं हैं तो हमें प्रेमचंद की सबसे अधिक जरूरत है। उनके साहित्य को लेकर समाज के बीच में जाना आज का जरूरी कार्यभार है।

आइसा नेता मयंक कुमार ने कहा कि सार्वजनिक शिक्षा के संबंध ने प्रेमचंद के खयाल आज के नीति–नियामकों से कहीं ऊंचे और प्रगतिशील थे। उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा को जनसुलभ और मुफ्त बनाने की बात कही थी। आज भाजपा सरकार शिक्षा के निजीकरण के जरिए प्रेमचंद जैसे हमारे पुरखों के ख्वाबों का कत्ल कर रही। प्रेमचंद हमें छात्रों–नौजवानों के हक–हुकूक की रक्षा के लिए प्रेरित करते हैं।

वहीं आइसा नेता संदीप कुमार ने कहा कि प्रेमचंद का साहित्य जनता के संघर्ष का दस्तावेज है। उनके पात्रों का संघर्ष हमारा अपना संघर्ष प्रतीत होता है।

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वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी भोला जी ने जनवादी गीतों का गायन किया तथा कहा कि प्रेमचंद का वास्तविक स्थान तो खेतों–खलिहानों से जुड़े किसान–मजदूर के बीच है। हमें प्रेमचंद को मठ और गढ़ से निकालकर जनता के बीच ले जाना होगा।

युवा कवि रूपक कुमार ने कहा कि प्रेमचंद ने भारतीय जन–मन को बहुत ही आत्मीयता से अभिव्यक्त किया था। आज भी उन्हें पढ़ कर लगता है कि जैसे वे हमारे सुख–दुख में साथ हैं।

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मौके पर बबिता सुमन, डॉ. अनामिका सुमन, प्रमोद कुमार, अवनीश कुमार, भगवान ठाकुर सहित कई अन्य लोग उपस्थित थे।

भवदीय
समीर कुमार
जिला सचिव, जसम (दरभंगा)



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