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सूर्योपासना का महान पर्व छठ व्रत आज, 7 नवंबर 2024



आचार्य राधाकान्त शास्त्री, 7 नवंबर 2024 । जिसे अपनी भाषा में छठी मैया कहा जाता है, वास्तव में षष्टी शब्द है जो तिथि मानक होने से षष्टी प्रयोग किया गया है। इस व्रत में सूर्य की उपासना होने पूर्ण नाम सूर्य षष्ठी व्रत एकरुप नाम दिया गया है।
कालांतर में आर्य संस्कृति का तीन भागों में बंट गया,शैव शाक्त और वैष्णव जिसमें कहीं शिवोपसना कहीं शाक्त उपासना और वैष्णवोपासना सम्पूर्ण विश्व में सभी मनुष्य थे इसमें अधिक शैव जिसमें आर्य और अनार्य दोनों थे।
शक्ति और वैष्णव कम थे , इसमें अपने अपने देव को सर्वश्रेष्ठ माने इसी को ध्यान में रखकर सूर्य को शक्ति के रूप में अवलोकन किया गया, यहीं कारण है कि सूर्य शक्ति की उपासना को षष्टी / छठी मैया की संज्ञा दी गई।

*सूर्योपासना का महान पर्व छठ या सूर्य षष्ठी व्रत:*

हिन्दू धर्म सनातन धर्म है, जो हमेशा हमें प्रकृति से जोड़ता है और उसकी उपासना कर उसके महत्व को बढ़ाता है। शास्त्रों के अनुसार प्रकृति के कण कण में ईश्वर हैं, जो हमें जीवन और शक्ति दोनों प्रदान करते हैं। हम पेड़–पौधे, धरती–आकाश, जल–वायु, सूर्य–चन्द्र सबकी पूजा किसी ना किसी रूप में करते हैं। ऐसा ही एक महान पर्व है सूर्योपासना का जिसे लोक संस्कृति में छठ पूजा कहा गया है।
वेदों में सूर्य को हमारे इस जगत की आत्मा माना गया है। सूर्य सभी तरह की ऊर्जा का स्रोत है, इसीलिए उसका स्तुति गान किया गया है।

वेदों में पांच तत्वों अग्नि, वायु, गगन, जल और धरती के महत्व और कार्य को कई तरह से दर्शाया गया है। धरती को तो माता की संज्ञा दी गई है। इस तरह मानव जीवन में प्रकृति और देवताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे सभी ब्रह्मस्वरूप माने गए हैं, लेकिन ब्रह्म नहीं। लोक में सूर्य ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है। मूलतः प्रकृति पूजा की संस्कृति वाले इस देश में, सूर्य की पूजा किसी भी परम्परा से बहुत–बहुत पुरानी है। यह वैदिक काल से है।

*हमारा देश और समाज मूलतः कृषि आधारित समाज ही है। छठ शुद्ध रूप से प्रकृति की पूजा का पर्व है।*

इस पर्व में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता दिखाने का अवसर दिया गया है।,
किंतु इस पर्व में किसी कर्मकांड की जरूरत नहीं है इस पूजा में। सूर्य की पूजा का मौका (जिन्हें एकमात्र ऐसा भगवान माना जाता है जो दिखते हैं) जलाशयों की महत्ता समझने–समझाने का त्योहार है। यह दुनिया का इकलौता अवसर है, जिसमें डूबते सूर्य को भी नमन किया जाता है। यह परंपरा इसे दूसरे पर्वों से अलग करती है। इससे समाज का यह दायित्व भी दिखता है कि जिस सूर्य ने हमें दिन भर तेज दिया, रोशनी दी, उसके निस्तेज होने पर भी हम उसे भूलते नहीं हैं।

इस पर्व की खास बात यह कि पूजा में वही चीजें चढ़ती हैं जो किसानी जीवन में सर्वाधिक सुलभ है। गुड़, गन्ना, सिंघाड़ा, नारियल, केला, नींबू, हल्दी, अदरक, सुपारी, साठी का चावल, जमीरी, संतरा, मूली आदि। ईख तो खास होता ही है। छठ पूजा में ईख, केला और नारियल का विशेष महत्व है।
ये एक ऐसा पर्व है जहाँ कोई दिखावा नहीं, जहाँ सर पर डाला लेकर घाट तक जाने में शर्म नहीं, जहाँ सूर्य उपासना के लिए घाट तक दण्डबैठक करने में कोई हिचक नहीं है। छठ पूजा में कोई चाहकर भी अपनी अमीरी का प्रदर्शन नहीं कर सकता और न ही किसी में गरीब होने की हीन भावना आती है। पूजा के जो प्रसाद हैं, उन्हें सभी व्रती खरीदते और बनाते हैं, मात्रा भले ही कम या अधिक हो सकती है। सब एक ही घाट पर पहुंचते हैं और एक ही तरीके से समान प्रसादों से सूर्य की उपासना करते हैं। इतना ही नहीं बाँस के बने डाला या सूप के बिना यह पर्व अधूरा है जो यह संदेश देता है कि जिसे आप अछूत कहते हैं ईश्वर की अराधना उनके योगदान के बिना अधूरा है। ऐसे में वह जाति अगर ईश्वर को प्रिय है तो हम और आपको उनसे घृणा का हक नहीं है।

*छठ पूजा:*
छठ पूजा चार दिनों तक चलती है और इसे काफी कठिन और विधि विधान वाला पर्व माना जाता है। इसके लिए पूजा से पहले काफी साफ सफाई की जाती है। घर के आसपास भी कहीं गंदगी नहीं रहने दी जाती है।

सूर्योपासना एक महान पर्व है जिसे लोक संस्कृति में छठ पूजा कहा गया है।

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वेदों में सूर्य को हमारे इस जगत की आत्मा माना गया है। सूर्य सभी तरह की ऊर्जा का स्रोत है, इसीलिए उसका स्तुति गान किया गया है, लेकिन उसे कभी परमेश्वर का दर्जा नहीं दिया गया। इसके अलावा वेदों में पांच तत्वों अग्नि, वायु, गगन, जल और धरती के महत्व और कार्य को कई तरह से दर्शाया गया है। धरती को तो माता की संज्ञा दी गई है । इस तरह मानव जीवन में प्रकृति और देवताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे सभी ब्रह्मस्वरूप माने गए हैं, लेकिन ब्रह्म नहीं। लोक में सूर्य ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है। मूलतः प्रकृति पूजा की संस्कृति वाले इस देश में, सूर्य की पूजा किसी भी परम्परा से बहुत–बहुत पुरानी है। यह वैदिक काल से है। लेकिन शास्त्रीयता और पांडित्य को लोक अपनी शर्तो पर स्वीकार करता है और उसका मानवीकरण भी करता आया है। लोक मूलतः हमारा कृषि आधारित समाज ही है।
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आराकाशा के अध्ययन ग्रंथों के अनुसारmछठ शुद्ध रूप से प्रकृति की पूजा का पर्व है। प्रकृति के प्रति कृतज्ञता दिखाने का अवसर, लेकिन किसी कर्मकांड की जरूरत नहीं है इस पूजा में। सूर्य की पूजा का मौका (जिन्हें एकमात्र ऐसा भगवान माना जाता है जो दिखते हैं) जलाशयों की महत्ता समझने–समझाने का त्योहार है। यह दुनिया का इकलौता अवसर है, जिसमें डूबते सूर्य को भी नमन किया जाता है। यह परंपरा इसे दूसरे पर्वों से अलग करती है। इससे समाज का यह दायित्व भी दिखता है कि जिस सूर्य ने हमें दिन भर तेज दिया, रोशनी दी, उसके निस्तेज होने पर भी हम उसे भूलते नहीं हैं।
लोक उसे ही स्वीकार करता है जो उसके बीच का होता है, इसलिए हमने अपनी आस्था का भी मानवीकरण किया है। क्योंकि तब वह हमारे जैसा होता है हममें से होता है, यही सगुण भक्ति का स्वरूप है। शायद इसीलिए लोक ने सूर्य की शक्तियों और उसकी ऊर्जा का मानवीकरण छठ मैया के रूप में कर दिया है। हालांकि इसे लेकर कई कथाएं भी हैं। लोकगीतों में छठ का यही आधार रंग हो जाता है।
गीतों में भइया से छठ पर पूजा की मोटरी लाने का और धरती की हरीतिमा और सघन करने का तथा दरवाजे पर ही पोखरी खुदवाने का आग्रह भी है। परदेसी पति को याद दिलाया जाता है कि घर पर छठ होने वाला है और अपनी जमीन से उखड़ने के दर्द को उत्सवधर्मिता से हटा दिया जाता है। पूजा के लिए लाए पके केले को सुग्गा के जूठा कर देने का गुस्सा है। लेकिन मूर्छित सुग्गे को जीवन दान के लिए आदित्य से आराधना भी है। सूर्य से विनती भी है कि वह जल्दी उदित हों ताकि उन्हें अघ्र्य दिया जा सके। उनसे पूछा जाता है कि आज आने में देर क्यों हो रही ?
इस पर्व की खास बात यह कि पूजा में वही चीजें चढ़ती हैं जो किसानी जीवन में सर्वाधिक सुलभ है। गुड़, गन्ना, सिंघाड़ा, नारियल, केला, नींबू, हल्दी, अदरक, सुपारी, साठी का चावल, जमीरी, संतरा, मूली आदि। ईख तो खास होता ही है। छठ के कई गीतों में केले नारियल का जिक्र आता है। आराकाशा के अध्ययन ग्रंथों के अनुसार
ये एक ऐसा पर्व है जहाँ कोई दिखावा नहीं, जहाँ सर पर डाला लेकर घाट तक जाने में शर्म नहीं, जहाँ सूर्य उपासना के लिए घाट तक दण्डबैठक करने में कोई हिचक नहीं है। छठ पूजा में कोई चाहकर भी अपनी अमीरी का प्रदर्शन नहीं कर सकता और न ही किसी में गरीब होने की हीन भावना आती है। पूजा के जो प्रसाद हैं, उन्हें सभी व्रती खरीदते और बनाते हैं, मात्रा भले ही कम या अधिक हो सकती है। सब एक ही घाट पर पहुंचते हैं और एक ही तरीके से समान प्रसादों से सूर्य की उपासना करते हैं। इतना ही नहीं बाँस के बने डाला या सूप के बिना यह पर्व अधूरा है जो यह संदेश देता है कि जिसे आप अछूत कहते हैं ईश्वर की अराधना उनके योगदान के बिना अधूरा है। ऐसे में वह जाति अगर ईश्वर को प्रिय है तो हम और आपको उनसे घृणा का हक नहीं है।
हिन्दू धर्म में सूर्य पूजा की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की और सप्तमी को सूर्योदय के समय अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया। इसी के उपलक्ष्य में सूर्य पूजा की जाती है। ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य है । इस कारण हिन्दू शास्त्रों में सूर्य को भगवान मानते हैं।
छठ पूजा को लेकर हिन्दूओं में काफी आस्था होती है। हालांकि अब यह पर्व हर जगह मनाया जाने लगा है, लेकिन मुख्य रूप से नेपाल के तराई, पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश क्षेत्रों में इस पर्व को लेकर एक अलग ही उत्साह देखने को मिलता है। दीपावली के बाद से ही छठ के गीतों से वातावरण गूँजने लगता है काँच ही बाँस के बहंगिया बहंगी लचकत जाय हो या केरवा जे फरेला घवध से, ओह पर सुग्गा मेडराय इतना ही नही मंहगाई में भी छठ न छोड़े की जिद भी है क्योंकि ये लगता है कि जो है वह इन्हीं की दी हुई है—कैसे छोड़व भैया छठि के बरतिया हिनकर दिहल भैया नैहर ससुररिया भाई रे भतीजवा। जिनसे रुनुकी झुनुकी बेटी माँगी जाती है और सोने सुहावन दामाद भी। सच पूछिए तो यह पर्व जनमानस का पर्व है, उत्साह और उल्लास का पर्व है, जीवन को सृष्टि और प्रकृति से आबद्ध करने का व्रत है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठ सूर्य देव की बहन हैं और सूर्योपासना करने से छठ माता प्रसन्न होकर घर परिवार में सुख शांति व धन धान्य प्रदान करती हैं।

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*कार्तिक छठ पूजा का है विशेष महत्व:*

भगवान भाष्कर की आराधना का यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है, चैत्र शुक्ल की षष्ठी व कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को। चैत्र शुक्ल की षष्ठी को काफी कम लोग यह पर्व मनाते हैं, लेकिन कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला छठ पर्व मुख्य माना जाता है। चार दिनों तक चलने वाले कार्तिक छठ पूजा का विशेष महत्व है।
क्यों की जाती है छठ पूजा ?
छठ पूजा मुख्य रूप से सूर्य देव की उपासना कर उनकी कृपा पाने के लिये की जाती है। भगवान भास्कर की कृपा से सेहत अच्छी रहती है और घर में धन धान्य की प्राप्ति होती है। संतान प्राप्ति के लिए भी छठ पूजन का विशेष महत्व है।

*कौन हैं छठ माता और कैसे हुई उत्पत्ति ?*

छठ माता को सूर्य देव की बहन बताया जाता है, लेकिन छठ व्रत कथा के अनुसार छठ माता भगवान की पुत्री देवसेना बताई गई हैं। अपने परिचय में वे कहती हैं कि वह प्रकृति की मूल प्रवृत्ति के छठवें अंश से उत्पन्न हुई हैं यही कारण है कि उन्हें षष्ठी कहा जाता है। संतान प्राप्ति की कामना करने वाले विधिवत पूजा करें, तो उनकी मनोकामना पूरी होती है। यह पूजा कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को करने का विधान बताया गया है।
छठ पर्व कैसे शुरू हुआ इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं। पुराण में छठ पूजा के पीछे की कहानी राजा प्रियंवद को लेकर है। कहते हैं राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी । इससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वो पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वो सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा को उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा।
राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी की व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं ये पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी और तभी से छठ पूजा होती है। इस कथा के अलावा एक कथा राम सीता जी से भी जुड़ी हुई है।
पौराणिक ग्रंथों में इसे रामायण काल में भगवान श्री राम के अयोध्या वापसी के बाद माता सीता के साथ मिलकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्योपासना करने से भी जोड़ा जाता है।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने माँ सीता पर गंगा जल छिड़क कर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। जिसे सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।
एक मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। इसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अघ्र्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अघ्र्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब दौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई।
चार दिनों तक चलती है छठ पूजा
छठ पूजा चार दिनों तक चलती है और इसे काफी कठिन और विधि विधान वाला पर्व माना जाता है। इसके लिए पूजा से पहले काफी साफ सफाई की जाती है। घर के आसपास भी कहीं गंदगी नहीं रहने दी जाती।

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1, नहाय खाय

आराकाशा के अध्ययन ग्रंथों के anusar पूजा के पहले दिन नहाय खाय होता है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को होती है। मान्यता है कि इस दिन व्रती स्नान कर नए वस्त्र धारण करते हैं और शाकाहारी भोजन करते हैं। इस दिन लौकी भात (लौकी की सब्जी और चावल, दाल आदि) की परंपरा है। पूजा के दौरान बाजार में लौकी की कीमत भी काफी बढ़ जाती है। नहाय खाय के दिन व्रती के भोजन करने के पश्चात ही घर के अन्य सदस्य भोजन करते हैं।

2, खरना
छठ पूजा के तहत नहाय खाय के दूसरे दिन खरना होता है। कार्तिक शुक्ल पंचमी को पूरे दिन व्रत रखा जाता है और शाम को व्रती भोजन ग्रहण करते हैं। इसे खरना कहा जाता है । इस दिन अन्न व जल ग्रहण किए बिना उपवास किया जाता है। शाम को चावल और गुड़ से खीर बनाकर खायी जाती है और लोगों के बीच इसका प्रसाद भी वितरित किया जाता है। इसमें नमक व चीनी का इस्तेमाल नहीं किया जाता। खीर बनाने में भी गुड़ का इस्तेमाल होता है।
खरना के दूसरे दिन घी में बनता है प्रसाद।

3, डाला छठ
खरना के दूसरे दिन षष्ठी को छठ पूजा का प्रसाद बनाया जाता है। इसमें ठेकुआ का विशेष महत्व होता है। अघ्र्य के लिए ठेकुआ बनता है वह पूरी तरह से घी में ही बनाया जाता है। ठेकुआ बनाने के लिए आम की लकड़ी का उपयोग होता है। बाजार में आम की लकड़ी भी मिल जाती है। इसके अलावा चावल के लड्डू भी बनाए जाते हैं। नदी घाटों पर देते हैं अघ्र्य
ठेकुआ और अन्य प्रसाद सामग्री तैयार होने के बाद फल, गन्ना और अन्य सामग्री बांस की टोकरी में सजाये जाते हैं। बांस की टोकरी को दउरा भी कहा जाता है। घर में इसकी पूजा कर सभी व्रती सूर्य को अघ्र्य देने के लिये तालाब या नदी घाट पर जाते हैं। पहले दिन स्नान के बाद डूबते सूर्य की आराधना की जाती है और उन्हें अघ्र्य दिया जाता है।

4, पूर्ण डाला छठ और पारणा*
अगले दिन यानि सप्तमी को सुबह उगते हुए सूर्य की उपासना कर अघ्र्य दी जाती है। इस दौरान नदी घाट पर हवन की प्रक्रिया भी पूरी की जाती है और पूजा के बाद सभी के बीच प्रसाद बांटा जाता है। फिर व्रत का पारणा किया जाता है।
भगवान भास्कर एवं माता देवसेना कौशिकी षष्ठी देवी अपने सभी भक्तों के सभी रोग शोक संकट दूर कर उत्तम आयु आरोग्यता, अखंड सुख सौभाग्य एवं उत्तम संतान सुख प्रदान करें।

*!!????शास्त्र संग्रह????!!*
*आपका साथ, आपका विकाश, एवं आपके कुशलता के कामना में , सदैव तत्पर आपका…*
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*हरि ॐ गुरुदेव..!*
*✒✍???? ✒✍????*
*ज्योतिषाचार्य*

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आचार्य राधाकान्त शास्त्री*
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*????!!शुभम बिहार यज्ञ ज्योतिष आश्रम!!????*
*राजिस्टार कालोनी, पश्चिम करगहिया रोड, वार्ड:- 2, नजदीक कालीबाग OP थाना, बेतिया पश्चिम चम्पारण, बिहार, 845449,*
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*सहायक शिक्षक:- राजकीयकृत युगल प्रसाद +2 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय भैसही, चनपटिया,बेतिया बिहार*
*वार्तालाप:-*,
*व्हाट्सएप संपर्क एवं पे फोन:- 9431093636*
एवं
*व्हाट्सएप संपर्क एवं पेटिएम:- 9934428775*
*वार्तालाप का समय:-*
*प्रातः 5 बजे से 8 बजे तक एवं दोपहर 3 बजे से रात्रि 10 बजे तक!*
अपने प्रश्न कभी भी भेज सकते है, समयानुसार उत्तर अवश्य मिलेगा।
*????(अहर्निशं सेवा महे)????*
*!!भवेत् सर्वेषां शुभ मंगलम्!!*



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